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वो नेता, जिसने बदल दिया दलित सियासत का चेहरा

कांशीराम ने देश में दलित राजनीति को एक नया तेवर दिया. मंच पर दिए उनके नारों से हंगामा मच जाता था.

नई दिल्ली, 15 मार्च  2023 (यूटीएन)। कांशीराम ने देश में दलित राजनीति को एक नया तेवर दिया. मंच पर दिए उनके नारों से हंगामा मच जाता था. विरोधी भी उनके राजनीतिक कौशल के कायल थे. देश की सक्रिय राजनीति में दो बड़े दलित नेता हुए. एक थे बाबू जगजीवन राम तो दूसरे थे कांशीराम, जिन्हें उनके चाहने वाले मान्यवर कहकर बुलाते थे. जगजीवन राम राजनीति का बड़ा दलित चेहरा थे तो कांशीराम ऐसे नेता थे जिन्होंने दलित राजनीति का चेहरा ही बदलकर रख दिया. कांशीराम ने राजनीति का ऐसा समीकरण बनाया जिसने पार्टी गठन के एक दशक बाद ही यूपी को पहला दलित सीएम दिया. इसके साथ ही कांशीराम के नारे भी बहुत चर्चा में रहे.
इन नारों को लेकर हंगामा भी खूब हुआ. शुरुआती दिनों में जब वे मंच पर इन नारों को लगाते तो उसके पहले ही कह दिया करते थे कि कोई ऊंची जाति का हो तो उठकर चला जाए. 15 मार्च, 1934 को कांशीराम का जन्म पंजाब के रोपड़ में एक दलित परिवार में हुआ था. हालांकि, उनके जन्म के बाद परिवार ने धर्म परिवर्तन कर लिया था और सिख बन गए थे. इससे उन्हें अन्य की तरह बचपन में तो भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन जाति का पीछा नहीं छूटा. 1956 में कांशीराम ने बीएससी की डिग्री पूरी की. इसी साल उन्हें सर्वे ऑफ इंडिया में पहली नौकरी मिली, लेकिन उन्होंने ज्वाइन नहीं किया.
पुणे में शुरू की पहली नौकरी इसके बाद पुणे के किरकी स्थित डीआरडीओ की गोला-बारूद फैक्ट्री में उनकी नौकरी लगी. यहां उन्होंने लैब में रिसर्च असिस्टेंट के रूप में ज्वाइन किया. यहां उन्हें जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा. पुणे आने के बाद कांशीराम ज्योतिबा फुले और भीमराव अंबेडकर के लेखन के संपर्क में आए. इस बीच दलितों के साथ हो रहे भेदभाव से उनका मन खिन्न रहा और 1964 में उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद उन्होंने दलितों के लिए जीवन समर्पित कर दिया.
*’बाकी सब हैं डीएस-4’*
दलितों को एकजुट करने के लिए कांशीराम देश के अलग-अलग हिस्सों में घूमकर दलितों से जुड़े सवाल उठाने लगे. 1973 में बाबा साहेब अंबेडकर के जन्मदिन पर उन्होंने ऑल इंडिया बैकवर्ड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लाइज फेडरेशन नाम का संगठन बनाया. ये बामसेफ के नाम से चर्चित हुआ. इस संगठन के बैनर तले वह शोषित पीड़ित समाज को एकजुट करते रहे. 1981 के आते-आते उन्हें संगठन में बदलाव की जरूरत महसूस हुआ. उन्होंने इसे नया नाम दिया दलित शोषित समाज संघर्ष समिति. शॉर्ट में ये डीएस-4 कहा गया. इस संगठन के तेवर काफी तेज थे. इस संगठन के साथ एक नारा चलता था- “ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4.”
*नारों ने बनाई अलग पहचान*
दलितो को अधिकार के लिए राजनीति में उतरे कांशीराम को नारों ने अलग पहचान दिलाई. उनका एक नारा खूब चर्चित हुआ था- तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार. 90 के दशक में जब ये नारा पहली बार सामने आया तो हंगामा मच गया. कहते हैं कि कांशीराम जब मंच पर आते तो पहले ही ऊंची जातियों को उठकर जाने को कह दिया करते थे. हालांकि, बाद में बहुजन समाज पार्टी ने इससे किनारा कर लिया था.कांशीराम की नारा पॉलिटिक्स ने उनके तेवर सबके सामने रख दिए थे. बड़ी संख्या में दलित युवा उनसे जुड़ने लगे. उनके प्रमुख नारे रहे
*वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा*
*जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी*
*वोट से लेंगे सीएम/पीएम, आरक्षण से लेंगे एसपी/डीएम*
*बसपा का गठन और मायावती का साथ*
1984 में कांशीराम ने महसूस किया कि कुछ बदलना है तो सत्ता में रहकर ही किया जा सकता है. इसी साल उन्होंने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया. दलित राजनीति के लिए उन्हें सबसे ज्यादा ठीक जगह उत्तर प्रदेश लगी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वह घूम-घूमकर पार्टी को मजबूत करने के लिए काम करने लगे. इसी दौरान उनकी मुलाकात मायावती से हुई. मायावती के साथ मिलकर कांशीराम ने उत्तर प्रदेश की राजनीति एक अलग छाप छोड़ी और पार्टी गठन के एक दशक बाद ही 1995 में मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी. आबादी और लोकसभा सीटों के हिसाब से सबसे बड़े प्रदेश में ये पहली बार था जब कोई दलित सीएम बना था.
*पहला चुनाव हारने के लिए* 
कांशीराम ने राजनीति के जो फॉर्मूले दिए वो खूब चर्चित हुए. ऐसा ही एक फॉर्मूला उन्होंने चुनाव को लेकर दिया. शुरुआती दिनों में बसपा राजनीतिक ताकत नहीं थी तो चुनाव को लेकर उनसे सवाल पूछे जाते थे. वो कहते थे कि पहला चुनाव हारने के लिए होता है. दूसरा हरवाने के लिए और तीसरा जीतने के लिए होता है. इसी फॉर्मूले पर मायावती ने पहला चुनाव जीत था. बसपा के गठन के बाद यूपी में तीन उपचुनाव हुए थे. तीनों में कांशीराम ने मायावती को मैदान में उतारा. पहला चुनाव बिजनौर और दूसरा हरिद्वार से मायावती हार गईं लेकिन 1989 के आम चुनाव में मायावती बिजनौर सीट से जीतकर लोकसभा पहुंची. ये बसपा की राजनीतिक ताकत बनने की शुरुआत थी जिसने आगे चलकर एक राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा भी हासिल किया.
विशेष संवाददाता, (प्रदीप जैन) |

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