Thursday, July 31, 2025

National

spot_img

ज़िंदगी परफेक्शन नहीं, एहसासों का नाम है”: इंद्राक्षी कांजीलाल का आज की युवा पीढ़ी को संदेश

बहुत प्रतिस्पर्धा थी, और जब लोग मुझसे बेहतर कुछ करते थे तो वो अक्सर मेरे सामने अपने अचीवमेंट्स का ज़िक्र करके मुझे छोटा महसूस कराते थे। वो सब मुझे अच्छा नहीं लगता था।

मुंबई, 12 जुलाई 2025 (यूटीएन)। ‘पुष्पा इम्पॉसिबल’ में अपने किरदार और सादगी से दर्शकों का दिल जीतने वाली इंद्राक्षी कांजीलाल ने हाल ही में अपने बचपन और उस समय झेली गई मानसिक दबावों पर खुलकर बात की। एक भावुक और आत्ममंथन भरे पल में उन्होंने बताया कि अगर उन्हें मौका मिले तो वो अपने बचपन के खुद से क्या कहना चाहेंगी।इंद्राक्षी ने कहा, “अगर मुझे समय में वापस जाकर अपने बचपन के खुद से बात करने का मौका मिले, तो मैं शायद चौथी या पाँचवी कक्षा के समय में जाना चाहूंगी  जब मैं करीब 9 या 10 साल की थी।” वो बताती हैं कि उस उम्र में भी उन पर काफी दबाव था। “बहुत प्रतिस्पर्धा थी, और जब लोग मुझसे बेहतर कुछ करते थे तो वो अक्सर मेरे सामने अपने अचीवमेंट्स का ज़िक्र करके मुझे छोटा महसूस कराते थे। वो सब मुझे अच्छा नहीं लगता था।”

इतनी छोटी उम्र में भी परफेक्ट बने रहने का दबाव उन पर हावी हो गया था। “मेरे माता-पिता की अपेक्षाएं भी बहुत ऊँची थीं, जिस वजह से मैं खुद को और ज़्यादा पुश करने लगी। तभी मैंने एक तरह का ‘परफेक्ट सिंड्रोम’ विकसित कर लिया  हर चीज़ को बिल्कुल परफेक्ट तरीके से करने की ज़िद। मैं खुद पर बहुत सख्त हो गई थी।” अब जब वह पीछे मुड़कर देखती हैं, तो उन्हें लगता है कि काश उस मासूम उम्र में थोड़ा सुकून से जीने की सलाह दी होती। “मैं उस बच्ची से कहती कि ज़िंदगी को इतना गंभीर मत बना, मुस्कुरा, खेल, और उन सालों को जी भर के जी। ज़िंदगी सिर्फ परफेक्शन या दबाव का नाम नहीं है। उस उम्र को दोबारा नहीं जिया जा सकता। मेरा बचपन बहुत गंभीर बीता—मैं ज्यादा मज़ाक नहीं करती थी, बहुत कम बोलती थी, और सिर्फ 3-4 दोस्त थे।”

आज के दौर की बात करें तो इंद्राक्षी मानती हैं कि भले ही दबाव की प्रकृति बदल गई हो, उसकी तीव्रता आज भी उतनी ही है। “आज के बच्चे और किशोर एक बिल्कुल अलग किस्म की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। सोशल मीडिया और डिजिटल दुनिया ने प्रतिस्पर्धा को सिर्फ पढ़ाई या खेल तक सीमित नहीं रखा है, अब यह दिखावे, मान्यता और डिजिटल पहचान तक फैल गया है। हर क्षेत्र में आगे दिखने का दबाव, और दूसरों से तुलना करना, बेहद थकाने वाला हो सकता है।”

वो यह भी जोड़ती हैं कि इस डिजिटल युग में मानसिक दबाव और भी गहरा हो गया है। “अब बच्चों को साइबरबुलींग, अवास्तविक सौंदर्य मानकों और ‘FOMO’ (फियर ऑफ मिसिंग आउट) जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। परफेक्ट दिखने का दबाव बहुत असली है, लेकिन अब इसमें सोशल जजमेंट का डर भी जुड़ गया है। ऐसे में ये और ज़रूरी हो जाता है कि हम बच्चों को यह सिखाएं कि उनकी कमियाँ और असमानताएं भी खूबसूरत हैं।”

आखिर में इंद्राक्षी संतुलित जीवन और मानसिक स्वास्थ्य पर ज़ोर देते हुए कहती हैं, “हमें बच्चों को याद दिलाते रहना चाहिए कि ज़िंदगी में रुककर छोटे-छोटे पलों का आनंद लेना भी ज़रूरी है — खुलकर खेलें, दिल से हँसे, और बिना प्रतिस्पर्धा की परछाई के सच्चे रिश्ते बनाएं। मानसिक स्वास्थ्य की अहमियत उतनी ही है जितनी शारीरिक सेहत की। और जब बच्चे खुद के प्रति दयालु बनेंगे, तो वे मज़बूत, खुश और आत्मविश्वासी इंसान बन पाएंगे।

मुंबई-रिपोर्टर,(हितेश जैन)।

International

spot_img

ज़िंदगी परफेक्शन नहीं, एहसासों का नाम है”: इंद्राक्षी कांजीलाल का आज की युवा पीढ़ी को संदेश

बहुत प्रतिस्पर्धा थी, और जब लोग मुझसे बेहतर कुछ करते थे तो वो अक्सर मेरे सामने अपने अचीवमेंट्स का ज़िक्र करके मुझे छोटा महसूस कराते थे। वो सब मुझे अच्छा नहीं लगता था।

मुंबई, 12 जुलाई 2025 (यूटीएन)। ‘पुष्पा इम्पॉसिबल’ में अपने किरदार और सादगी से दर्शकों का दिल जीतने वाली इंद्राक्षी कांजीलाल ने हाल ही में अपने बचपन और उस समय झेली गई मानसिक दबावों पर खुलकर बात की। एक भावुक और आत्ममंथन भरे पल में उन्होंने बताया कि अगर उन्हें मौका मिले तो वो अपने बचपन के खुद से क्या कहना चाहेंगी।इंद्राक्षी ने कहा, “अगर मुझे समय में वापस जाकर अपने बचपन के खुद से बात करने का मौका मिले, तो मैं शायद चौथी या पाँचवी कक्षा के समय में जाना चाहूंगी  जब मैं करीब 9 या 10 साल की थी।” वो बताती हैं कि उस उम्र में भी उन पर काफी दबाव था। “बहुत प्रतिस्पर्धा थी, और जब लोग मुझसे बेहतर कुछ करते थे तो वो अक्सर मेरे सामने अपने अचीवमेंट्स का ज़िक्र करके मुझे छोटा महसूस कराते थे। वो सब मुझे अच्छा नहीं लगता था।”

इतनी छोटी उम्र में भी परफेक्ट बने रहने का दबाव उन पर हावी हो गया था। “मेरे माता-पिता की अपेक्षाएं भी बहुत ऊँची थीं, जिस वजह से मैं खुद को और ज़्यादा पुश करने लगी। तभी मैंने एक तरह का ‘परफेक्ट सिंड्रोम’ विकसित कर लिया  हर चीज़ को बिल्कुल परफेक्ट तरीके से करने की ज़िद। मैं खुद पर बहुत सख्त हो गई थी।” अब जब वह पीछे मुड़कर देखती हैं, तो उन्हें लगता है कि काश उस मासूम उम्र में थोड़ा सुकून से जीने की सलाह दी होती। “मैं उस बच्ची से कहती कि ज़िंदगी को इतना गंभीर मत बना, मुस्कुरा, खेल, और उन सालों को जी भर के जी। ज़िंदगी सिर्फ परफेक्शन या दबाव का नाम नहीं है। उस उम्र को दोबारा नहीं जिया जा सकता। मेरा बचपन बहुत गंभीर बीता—मैं ज्यादा मज़ाक नहीं करती थी, बहुत कम बोलती थी, और सिर्फ 3-4 दोस्त थे।”

आज के दौर की बात करें तो इंद्राक्षी मानती हैं कि भले ही दबाव की प्रकृति बदल गई हो, उसकी तीव्रता आज भी उतनी ही है। “आज के बच्चे और किशोर एक बिल्कुल अलग किस्म की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। सोशल मीडिया और डिजिटल दुनिया ने प्रतिस्पर्धा को सिर्फ पढ़ाई या खेल तक सीमित नहीं रखा है, अब यह दिखावे, मान्यता और डिजिटल पहचान तक फैल गया है। हर क्षेत्र में आगे दिखने का दबाव, और दूसरों से तुलना करना, बेहद थकाने वाला हो सकता है।”

वो यह भी जोड़ती हैं कि इस डिजिटल युग में मानसिक दबाव और भी गहरा हो गया है। “अब बच्चों को साइबरबुलींग, अवास्तविक सौंदर्य मानकों और ‘FOMO’ (फियर ऑफ मिसिंग आउट) जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। परफेक्ट दिखने का दबाव बहुत असली है, लेकिन अब इसमें सोशल जजमेंट का डर भी जुड़ गया है। ऐसे में ये और ज़रूरी हो जाता है कि हम बच्चों को यह सिखाएं कि उनकी कमियाँ और असमानताएं भी खूबसूरत हैं।”

आखिर में इंद्राक्षी संतुलित जीवन और मानसिक स्वास्थ्य पर ज़ोर देते हुए कहती हैं, “हमें बच्चों को याद दिलाते रहना चाहिए कि ज़िंदगी में रुककर छोटे-छोटे पलों का आनंद लेना भी ज़रूरी है — खुलकर खेलें, दिल से हँसे, और बिना प्रतिस्पर्धा की परछाई के सच्चे रिश्ते बनाएं। मानसिक स्वास्थ्य की अहमियत उतनी ही है जितनी शारीरिक सेहत की। और जब बच्चे खुद के प्रति दयालु बनेंगे, तो वे मज़बूत, खुश और आत्मविश्वासी इंसान बन पाएंगे।

मुंबई-रिपोर्टर,(हितेश जैन)।

National

spot_img

International

spot_img
RELATED ARTICLES