नई दिल्ली, 01 सितम्बर (यूटीएन)। एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध इस्तेमाल को रोकने के लिए केंद्र ने नए नियम लागू किए हैं। इसके तहत कोई भी डॉक्टर सिर्फ अंदाजे के आधार पर एक या दो दिन के लिए मरीज को दवा दे सकता है। दवा लिखते समय मरीज की कल्चर जांच कराई जाएगी। इसकी रिपोर्ट आने के बाद डॉक्टर को इलाज पैथोजन-बेस्ड टार्गेटेड थेरेपी में बदलना होगा। यानी डॉक्टर को यह देखना होगा कि संक्रमित मरीज जिस बैक्टीरिया या वायरस की चपेट में आया है, उसके लिए कौन सी दवा असरदार होगी। इस अभ्यास के जरिये न सिर्फ गलत एंटीबायोटिक के प्रयोग पर रोक लगाई जा सकेगी, बल्कि मरीजों में लगातार बढ़ते सुपरबग्स के मामलों में भी कमी आएगी।
सरकार ने संक्रामक रोगों में एंटीबायोटिक इस्तेमाल के लिए नई राष्ट्रीय उपचार गाइडलाइन (एनटीजी 2025) जारी की है जिसे देश के 44 डॉक्टरों ने तैयार की है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्यों को भेजे इन नए नियमों में साफ तौर पर कहा है कि किसी भी मरीज को एंटीबायोटिक देने से पहले डॉक्टर को अनिवार्य रूप से क्लीनिकल सैंपल प्रयोगशाला में भेजना होगा। यानी अब इलाज केवल अंदाजे पर नहीं बल्कि जांच रिपोर्ट पर आधारित होगा। मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी ने कहा कि अगर डॉक्टर हर मरीज को अंदाजे से एंटीबायोटिक देते रहेंगे तो आने वाले 10 से 15 साल में हमारे पास काम करने वाली कोई दवा नहीं बचेगी। यही वजह है कि नई गाइडलाइन ‘पहले जांच, फिर इलाज’ पर जोर दिया है।
एक गैर सरकारी संगठन के स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. अनिल वर्मा का कहना है कि एंटीबायोटिक दवाओं की खपत रोकने में नए नियम काफी अहम हो सकते हैं। देश के प्रत्येक व्यक्ति को यह समझना होगा कि हमें आंख मूंदकर हर दवा का सेवन नहीं करना चाहिए। हालांकि हकीकत यह भी है कि हर अस्पताल में एंटीबायोटिक जांच सुविधा नहीं है।
*बेअसर हो रहीं दवाएं*
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की डॉ. कामना वालिया बताती हैं कि एंटीबायोटिक दवाएं लेने का सबसे बड़ा नुकसान कुछ समय बाद उनका बेअसर होना है। कई बार ऐसे मरीज मिलते हैं जिन्हें पहले दो से तीन दिन में दवा से आराम हो जाता था लेकिन अब दो सप्ताह बाद तक कोई असर नहीं होता। कोरोना काल में पेरासिटामोल दवा का उदाहरण सबके सामने है।
विशेष- संवाददाता, (प्रदीप जैन)।